भारतीय राजनीति के डीएनए में ही खोट है...
न काहू से बैर - राघवेंद्र सिंह
भारत गांवों का देश है और देहात में एक कहावत आम है जननी जने तो भक्तजन, के दाता के शूर, नहीं तो काहे गंवावत नूर... अर्थात माता यदि पुत्र पैदा करे तो वह भक्त या फिर शूरवीर हो, दोनों न हो तो फिर वह व्यर्थ ही अपनी सुंदरता न गंवाए। भारतीय राजनीति में ऐसे भाव के भक्त और वादों के पक्के राजनेताओं की खासी कमी देखी जा रही है। 130 करोड़ के देश में वादे के पक्के राजनेताओं के मामले में मतदाता बदकिस्मत ज्यादा दिखायी दे रहे हैैं। बात हम शुरू करते हैैं यूपी के गोरखपुर अस्पताल में 37 बच्चों की मौत पर योगी सरकार की कार्यवाही कम और बयानबाजी ज्यादा से। गोरखपुर योगी आदित्यनाथ की आध्यात्मिक और राजनीतिक दोनों ही हिसाब से कर्मस्थली है। वे गोरखपुरपीठ के मुखिया के साथ साथ यहां लंबे समय तक सांसद रहे और अब मुख्यमंत्री हैैं। किसी भी क्षेत्र के उद्धार के लिये इतना होना काफी है। गोरखपुर भी उन दुर्भाग्यशाली शहर में शुमार हो गया है जहां से योगी जी मुख्यमंत्री तो हैैं मगर एक हफ्ते में 60 बच्चों समेत कुल 67 लोगों की मौत हो चुकी है।L आक्सीजन के अभाव 60 घरों के चिराग बुझ गये। अब इस पर तर्क कुतर्क हो सकते हैैं। लेकिन जिन्होंने बच्चे खो दिये हैैं उनकी वापसी संभव नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के नाती जो वर्तमान में यूपी के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह हैैं।
वे फरमाते हैैं कि अगस्त के महीने में गोरखपुर अस्पताल में इसी तरह बच्चों की मौत होती है। इसे कुतर्क कहें, संवेदनहीनता कहें या पूर्व प्रधानमंत्री के नाती की गैरजिम्मेदारी ये सब पाठकों पर छोड़ते हैैं। लेकिन लोगों को याद होगा कि शास्त्री जी अपने समय के ऐसे रेल मंत्री रहे थे जिन्होंने रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी लेते हुये अपने पद से इस्तीफा दे दिया था और दूसरे उनके नाती हैैं जो आक्सीजन के अभाव में हुई बच्चों की मौत पर कहते हैैं यह तो हर साल होता है। हमने शुरूआत में कहा है जननी जने तो भक्त जन.....यहां भले ही सिद्धार्थनाथ सिंह अपने नाना के उच्च नैतिकता को न छूते हुये इस्तीफा न दें लेकिन मौत के जिम्मेदार अफसरों, डाक्टरों को बचाने के बयान भी न दें। हैरत की बात यह है कि सौ दिन पहले जनता के बीच में से सरकार में आये मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर उनकी समूची केबिनेट ही गोरखपुर हादसे में नौकरशाही की बोतल में बंद होती नजर आयी। मुख्यमंत्री ने अपने ऐलान में मुख्य सचिव से घटना की जांच करने और दोषियों को सख्त सजा देने का जुमला उछाला। लेकिन जांच की घोषणा के बाद अस्पताल के स्टाफ को नहीं बदला। सामान्य प्रक्रिया ही देखें तो इस तरह की घटनाओं में न्यायिक जांच की घोषणा की जाती है। अगर ऐसा नहीं भी है तो जांच के फैसले के साथ ही घटना स्थल के अधिकारियों को बदल दिया जाता है ताकि वह जांच को प्रभावित न कर सकें।
घटना से संबंधित साक्ष्यों को नष्ट न कर सकें। सरकार ने जांच की घोषणा के बाद इस तरह का एहतियात में भी नहीं बरता। बड़े फैसलों में मेडीकल कालेज के प्राचार्य और अस्पताल के वार्ड प्रभारी को जरूर हटाया गया है। लेकिन यह कदम भी देर से उठाया गया है। कुल मिलाकर मुख्यमंत्री की सख्त छवि से यह सब मेल नहीं खाता है। प्रशासनिक अराजकता को दुरूस्त करने के वादों के साथ सरकार में आई भाजपा और युवा तुर्कों में शुमार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सख्त प्रशासक के रूप में गोरखपुर टेस्ट में फेल होते नजर आये। असल में गोरखपुर योगी के दिल से जुड़ा मामला भी है। अगर यहां संवेदनहीनता का स्तर यह होगा तो राज्य की बाकी घटनाओं के बारे में सरकार के रवैये का अंदाजा लगाया जा सकता है। यूपी की जनता ने जिस भरोसे के साथ भाजपा को पूर्ण बहुमत दिया है गोरखपुर हादसे में सरकार का निर्णय उतना ही 'अल्पमत' वाला साबित हुआ है। इसके पहले उत्तरप्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह का नाम सख्त प्रशासक के रूप में याद किया जाता है। एक किस्सा है हड़ताल खत्म नहीं कर रहे पटवारियों का। चौधरी चरण सिंह ने काम पर लौटने का आह्वान किया और जब वे नहीं आये तो जबावी सख्त कार्यवाही में उन्होंने पटवारियों की नई भर्तियों के आदेश जारी कर दिये थे। योगी आदित्यनाथ से वोटरों की उम्मीदें चौधरी साहब के फैसलों की ज्यादा है।
बहरहाल, हम मध्यप्रदेश पर लौटते हैैं। एक समय था जब यहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने आदिवासी क्षेत्र में केरौसिन की व्यवस्था में गड़बड़ी को लेकर सीधे मुख्य सचिव को सस्पेंड किया था। यह अर्जुन सिंह का जनता के प्रति संवेदनशील होने और लापरवाह नौकरशाही के खिलाफ सख्त फैसले का बड़ा उदाहरण था। हालांकि इसके बाद कोई मुख्यमंत्री ऐसा नहीं कर पाया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जरूर हाईकोर्ट में राज्य सरकार की तरफ से भ्रष्टाचार के आरोपी एक अधिकारी के पक्ष में राय देने वाले मुख्य सचिव को प्रदेश से विदा कर केंद्र में भेज दिया था। लेकिन इससे ज्यादा कोई उदाहरण नौकरशाही को काबू में करने वाले देखने में नहीं आये। हाल ही की बात करें तो प्रदेश के सहकारिता महकमें में भ्रष्टाचार इतना गहरे तक है कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान कहते हैैं कि सहकारिता के पूरे सिस्टम को भ्रष्ट कर दिया गया है सहकारिता और अंतिम व्यक्ति के बीच भ्रष्टाचार की कड़ी बनकर हमारे लोग खड़े हुये हैैं। उन्होंने कहा मैैंने ऐसे लोगों को मरते देखा है। वे यहीं नहीं रुकते कहते हैैं उनकी मौत के बाद कीड़े पड़ते हैैं। उन्होंने अंतिम मौका देते हुये अपने लाचारी कुछ इस तरह से बयां की कि ये लोग पार्टी में इसलिये इन लोगों कुछ कर नहीं सकते। इस तरह संगठन भ्रष्टाचार के मामले में पस्त है और सरकार में बैठे लोग भ्रष्टाचारियों के साथ मस्त हैैं। इधर संगठन के मुखिया कुछ नहीं कर पा रहे हैैं उधर सरकार के मुखिया भी कुछ करने की स्थिति में नहीं हैैं जबकि करना इन दोनों को ही है। जनता, कार्यकर्ता और पार्टी हाईकमान इन दोनों मुखियाओं की तरफ ही नजर लगाये हुये हैैं। भ्रष्टाचार की बात करें तो इन दिनों प्याज भले ही किसानों और जनता को रूला रही है लेकिन इसकी खरीदी में आये दिन जो खुलासे हो रहे हैैं वह चौैंकानेवाले हैैं। सरकार ने 8 रुपये किलो किसानों से प्याज खरीदी फिर पौने तीन रुपये उसे व्यापारियों को बेच दिया और अब बाजार में वही प्याज 30 रुपये किलो से ऊपर बिक रही है। लेकिन घोटाले की जड़ में प्याज की कागजों पर खरीदी बात जब सरकार की नजर आयी तो जांच के लिये भी हिम्मत जुटानी पड़ी है। अकेले भोपाल में 50 हजार क्विंटल प्याज वेयरहाउस में इसलिये सड़ा दी गई क्योंकि उसे ठीक से नहीं रखा गया था। यह प्याज भोपाल की 21 दिनों की जरूरत पूरी करती। कहा जाता है कि करीब 600 करोड़ रुपये का प्याज घोटाला अफसर, व्यापारी और सत्ताधारी दल के नेताओं की सांठगांठ से हुआ है। कुल मिलाकर यूपी के गोरखपुर हादसे से लेकर मध्यप्रदेश के मंदसौर किसान गोली कांड और फिर प्याज घोटाला.... इस फेहरिस्त में दर्जनों नाम जुड़ सकते हैैं लेकिन ईमानदारी और भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस के दावे फिस्सड्डी साबित हो रहे हैैं। भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिये आने वाले दिनों में चिंता का सबब हो सकते हैैं। फिलहाल तो भ्रष्टाचारियों और गपोडिय़ों की जय जय....।
मंत्रियों के बच्चे होते तो...
सोशल मीडिया में गोरखपुर हादसे को लेकर कहा जा रहा है कि आक्सीजन के बिना अगर मंत्री और नेताओं के बच्चों की मौत होती तो शायद बातें नहीं फिर कार्यवाही होती। ये भी कहा जा रहा है कि बच्चों की जगह अगर गायें मरती तो भगवा कैंप में उबाल आता और अगर अल्पसंख्यकों के साथ कुछ हादसा होता तो सेकुलरवादियों को देश असुरक्षित लगने लगता। लेकिन बच्चे न गाय थे न अल्पसंख्यक इसलिये सबकुछ बयानों में सिमटा हुआ है।
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